“आरक्षण से डॉक्टर और मास्टर बनाए जा सकते हैं, परशुराम और चाणक्य नहीं!” यह कथन न केवल गहराई से सोचने पर मजबूर करता है, बल्कि शिक्षा व्यवस्था, सामाजिक न्याय और प्रतिभा के बीच संतुलन पर बहस को भी जन्म देता है।
समर्थकों का मानना है कि आरक्षण एक जरूरी नीति है, जो वंचित वर्गों को मुख्यधारा में लाने का माध्यम है। यह सामाजिक असमानताओं को मिटाने की कोशिश करता है। लेकिन दूसरी ओर, आलोचकों का तर्क है कि केवल नीति के बल पर महान विचारक, योद्धा या मार्गदर्शक नहीं बनाए जा सकते। चाणक्य जैसी दूरदृष्टि और परशुराम जैसी आत्मशक्ति तपस्या, संस्कार और निरंतर साधना से आती है—जो किसी आरक्षण नीति से नहीं मिलती।
इस बयान ने एक बार फिर यह सोचने पर मजबूर किया है कि क्या हमारी नीतियां केवल नौकरी और शिक्षा तक सीमित हो गई हैं? क्या हम चरित्र, दृष्टिकोण और नेतृत्व निर्माण पर भी ध्यान दे रहे हैं?
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