हमारा समाज आज भी यह मानता है कि शिक्षा केवल बच्चों और युवाओं के लिए होती है। लेकिन वास्तविकता यह है कि समाज की असली सोच वही होती है जो बुज़ुर्गों के ज़रिए घर-घर में पनपती है। ये वही बुज़ुर्ग होते हैं — चाहे पुरुष हों या महिलाएं — जो पीढ़ियों को परंपरा, संस्कृति और जीवन मूल्यों की दिशा दिखाते हैं। लेकिन जब सोच दूषित हो जाए, तो परंपरा भी कुप्रथा बन जाती है।
ज़रूरत है ऐसे “विद्यालयों” की जो इन बुज़ुर्गों को केवल पढ़ना-लिखना नहीं, बल्कि जीने का सलीका और सोचने का नया नजरिया सिखाएं।
यह साफ़ कर देना चाहिए कि जब हम “बड़े” या “बुजुर्ग” कहते हैं, तो उसमें बुजुर्ग महिलाएं भी उतनी ही शामिल हैं।कई बार वही महिलाएं दहेज को “परिवार की इज्जत” बताती हैं, बहू को “सेवा करने वाली” समझती हैं, और बेटियों को “पराया धन” कहती हैं।
इन्हीं बुज़ुर्गों का एक बड़ा हिस्सा खाली समय में मंदिरों के बाहर, चाय की टपरियों पर या अपने साथियों के साथ बैठकर दिनभर यही चर्चा करते हैं — “उसके बेटे की नौकरी नहीं लगी”, “बहू बहुत बोलती है”, “आजकल के बच्चे बर्बाद हो गए हैं”।
इन बैठकों में ना सिर्फ गॉसिप होती है, बल्कि समाज को पीछे ले जाने वाले विचारों को खुलकर भड़काया भी जाता है।बजाय सकारात्मक सोच के प्रचार के, ये चौपालें बन जाती हैं तानों, तुलना और तिरस्कार की फैक्टरी।
अगर किसी की नौकरी लग जाए तो कहते हैं —”चलो, अब पैसे तो आएँगे, पर देखना घमंडी हो जाएगा।”अगर नहीं लगे तो —”बचपन से ही बेकार था, मां-बाप ने कुछ नहीं सिखाया।”
कम कमाने वाला हंसी का पात्र बनता है, और ज्यादा कमाने वाले की बुराइयाँ ढूंढी जाती हैं।ऐसे ही वातावरण में बेटियों को कमतर समझा जाता है, बहुओं को नीचा दिखाया जाता है, और जात-पात का ज़हर हर पीढ़ी में डाला जाता है।
यही बुज़ुर्ग मिलकर समाज बनाते हैं — और जब वही सोच पिछड़ी हो, तो समाज कैसे आगे बढ़ेगा?
इसलिए अब समय है कि इन बुज़ुर्गों के लिए विद्यालय खोले जाएँ।ऐसे विद्यालय जहाँ उन्हें सिखाया जाए —
कि सम्मान उम्र से नहीं, व्यवहार से मिलता है।
कि बहू कोई बोझ नहीं, परिवार का गौरव है।
कि दहेज लेना पाप है।
कि जात-पात और भेदभाव केवल इंसानियत की हार है।
कि बेटा-बेटी बराबर हैं, और सबको बराबरी का हक़ मिलना चाहिए।
समाज तभी बदलेगा, जब बड़ों की सोच बदलेगी। जब वे केवल उपदेश नहीं, उदाहरण बनेंगे।
शिक्षा सभी के लिए है — और सबसे ज्यादा ज़रूरत अब उसी पीढ़ी को है, जो आने वाली पीढ़ी की सोच तय करती है।
“बड़ों के विद्यालय” कोई मज़ाक नहीं, यह समाज के पुनर्निर्माण की नींव है।जहाँ बुज़ुर्ग फिर से विद्यार्थी बनें — और समाज फिर से इंसानियत सीखे।